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Tuesday 5 September 2017
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Monday 4 September 2017
Saturday, January 31, 2009 अजित वडनेरकर पर 3:26 AM 25 comments: धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी...[सिक्का-16] भक्ति के जरिये यदि प्रभु मिलें तो वह सर्वोच्च धन है। सांसारिक जीवन में स्त्रीधन, पुत्र धन, मानधन, पशुधन(गोधन) भूधन जैसी उपमाएं धन का महत्व ही बताती हैं। सु ... धन के भौतिक रुप को ही अन्तिम सत्य समझना मूर्खता है...धन के कई रूप हैं। बल्कि जीवन स्वयं ही धन है… संस्कारों से बड़ी पूंजी कुछ नहीं। संस्कार शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता है मगर सार रूप में समझें तो चिंतन और कर्म के दायरे में मानवीय व्यवहार ही संस्कार होते हैं। किसी का आभार मानना भी सुसंस्कार है। यूं तो हम भारतीय किसी का शुक्रगुज़ार होना और प्रशंसा करना कम जानते हैं तो भी इसके लिए शब्दकोशों में धन्यवाद शब्द मिलता है। कभी कभी इसका प्रयोग भी कर लिया जाता है। निश्चित ही कृतज्ञता ज्ञापन पाने वाला सुखद अनुभव से धनी हो जाता है। विपन्न हो जाने के भय से ही शायद इसे न देने का कुसंस्कार पनप रहा है। धन्यवाद में देवनागरी के ध वर्ण की महिमा व्याप रही है। ध वर्ण में रखने वाला, धारण करने वाला जैसे भाव समाहित हैं। ब्रह्मा, कुबेर, भलाई, नेकी, संस्कार, धन-दौलत जैसे भाव भी इस वर्ण से जुड़े हुए हैं। इसी कड़ी में धन् धातु से बना है धन्य जो बड़ा मांगलिक शब्द है। दौलतमंद, मालदार, भाग्यवान, ऐश्वर्यवान, उत्तम, श्रेष्ठ जैसे अर्थ इसमें निहित है। कृतज्ञता जताने, प्रशंसा-स्तुति के लिए धन्यवाद शब्द इसी मूल से जन्मा है। धन की महिमा न्यारी है। धन अर्थात दौलत, सम्पत्ति, रुपया-पैसा आदि। धन की श्रेणी में वह सब कुछ आ जाता है जो मनुश्य को प्रिय है संस्कार, रिश्ते, धर्म, काल-जिसमें आयु शामिल है आदि। तरुणी अथवा युवा स्त्री के लिए संस्कृत में धनी शब्द है। युवावस्था में आयु-कलश भरा हुआ नज़र आता है। बढ़ती उम्र में यह घड़ा जब रीतता जाता है तब उम्र के बहीखाते पर नज़र पड़ती है और हम बौखला जाते हैं। अक्सर बढ़ापे में लोग खुद को लुटा-पिटा महसूस करते हैं, चाहे वे धनवान हों। रिश्ते के महत्व के तौर पर स्त्री के लिए उसका पति धणी है तो पति के लिए उसकी स्त्री। धन की देवी लक्ष्मी हैं और इसीलिए गृहस्वामिनी को भी लक्ष्मी का दर्जा ही दिया जाता है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह प्राप्ति में, अर्जन में सुख पाता है। जो प्राप्त होता है, अर्जित होता है वही उसका धन है। भक्ति के जरिये यदि प्रभु मिलें तो वह सर्वोच्च धन है। सांसारिक जीवन में स्त्रीधन, पुत्र धन, मानधन, पशुधन (गोधन), भूधन जैसी उपमाएं धन को ही रेखांकित करती हैं। धन् से बने धनम् में ये तमाम अर्थ निहित हैं। अमीर, सम्पन्न व्यक्ति के लिए धनिक, धनवान, धनिन, धनेश जैसे शब्द बने हैं। सेठ के साथ धन्ना शब्द भी इसीलिए लगाया जाता है। आयुर्वेद के जन्मदाता का नाम धन्वन्तरि संभवतः आयु के महत्व को ही बताता है। समुद्रमंथन के अंत में आयु को निरपेक्ष बना देने वाले तत्व अर्थात अमृत से भरे कलश को लेकर उनका समुद्र से प्रकट होने वाला प्रसंग इस संदर्भ में महान प्रतीक है। मृत्यु के लिए निधन शब्द के मूल में भी धन शब्द ही है। आप्टे कोश में वरामिहिरकृत बृहत्संहिता के हवाले से कहा गया है-निवृतं धनं यस्मात् यानी धन का न रहना। समझा जा सकता है निर्धनता को मृत्यु से भी बदतर मानने के पीछे मनुष्य के पास प्राचीनकाल से ही कटु अनुभव रहे होंगे। गरीबी हो या अचानक पैदा हुआ अर्थाभाव, निर्धन होते ही मृत्यु का विकल्प चुनने की मनुष्य में सहज वृत्ति होती है। इसके मूल में है जीवन के अन्य विविध आयामों में धन की व्याख्या न करना या धन को सिर्फ भौतिक सम्पत्ति से ही तौलना। जीवन को भी धन की उपमा दी गई है। गोस्वामी तुलसीदास ने “धीरज,धर्म मित्र अरु नारी। आपदकाल परखिये चारी।।” जैसी उक्ति में धन के इन चार प्रकारों की आजमाइश की सलाह दी है जिनमें धैर्य और धर्म सबसे सबसे बड़ा धन हैं। निर्धन से ही बना है मृत्यु का पर्याय निधन। शब्दकोश में निधन के उपसंहार, परिसमाप्ति,अंत जैसे अर्थ भी बताए गए हैं जो यही सिद्ध भी करते हैं। कर्म के नज़रिये से भी धन की व्याख्या है। शिक्षक के लिए उसके उसकी पोथियां, दौलतमंद के लिए उसकी बहियां, वीर के लिए उसका बल-आयुध और कार्मिकों के लिए सेवाधन ही सबसे बड़ी पूंजी है। दुनियाभर की संस्कृतियों में धनुष ही प्राचीनतम हथियार रहा है। धनुष भी धन् धातु से ही बना है। पुराने समय में प्रायः हर वर्ग के लोग धनुर्विद्या में पारंगत होना चाहते थे। रामेश्वरम् के पास धनुष्कोटि तीर्थ का नाम भी इससे ही जुड़ा है। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Friday, January 30, 2009 अजित वडनेरकर पर 3:34 AM 22 comments: रंग लाएगी फ़ाक़ामस्ती एक दिन [संत-1]… की प्राप्ति हो जाती है तो तब आप हैं जो फ़ख्र के काबिल होती है। क बुल्लेशाह का कलाम आबिदा परवीन की आवाज़ में "मन लागो मेरो यार फकीरी में। जो सुख पावौं राम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में।" बीर के यहां इसी किस्म का फ़क़ीराना ठाठ देखने को मिलता है। यूं सभी निर्गुण संतों और सूफियों का यही मूलमंत्र भी रहा है कि माया मोह को त्याग कर आत्मज्ञान की जोत जलाने से ही प्रभु मिलते हैं। और यह रास्ता वह यूं ही नहीं चुनता है। पैग़म्बर साहब के मुताबिक फ़क़ीरी पर उन्हें फ़ख़्र है (फ़क़ीरी फ़ख़्री) समूचे भारत में फ़क़ीर शब्द का मतलब साधु, सन्यासी, संत ही होता है। फ़क़ीर मूलतः ऐसे साधक को कहते हैं जिसने सांसारिक चोला त्याग कर आत्मज्ञान की राह पर कदम बढ़ा दिए हैं। न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति वह मांग कर करता है इसीलिए फ़क़ीर को भी मंगतों की श्रेणी में रख दिया गया। फ़क़ीर के लिए फ़ाक़ा की व्यवस्था की गई है। सामान्य व्यक्ति दो वक्त की रोटी के लिए आठ घंटे खटता है। बिना काम धंधा किए दोनो वक्त मुफ्त की रोटी पर गुज़र करना मंगताई है मगर सिर्फ एक वक्त मांग कर खाना और एक वक्त निराहार रहना फ़ाक़ा है।फ़ाक़ा बना है अरबी के फ़ाक़ः से जिसका अर्थ होता है उपवास, अनशन, निराहार रहना आदि। अर्थ संकोच के चलते फ़ाकः का मतलब सिर्फ भूखों मरने तक सीमित हो गया। फ़का़ की रिश्तेदारी भी फ़क़ीर से है जिसका उद्गम फ़क़्र से माना जाता है। कर्ज की पीते थे मय और समझते थे कि हां रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन मशहूर शायर गालिब का हाथ हमेशा तंग रहता था। कह सकते हैं कि मुफलिसी उन्हें घेरे रहती थी। फाका करने की नौबत कभी आई या नहीं , यह तो नहीं पता मगर मुहावरे के तौर पर उनकी शायरी में फ़ाक़ा शब्द का इस्तेमाल हुआ है। फ़ाक़ा शब्द का सामान्य अर्थ तंगी में गुज़र होना, भुखमरी में जीना है। इसीलिए फाकाकशी जैसा शब्द भी उर्दू-हिन्दी-फारसी में प्रचलित है। मगर ये सूफियों की शैली ही थी जिसने फ़ाक़ा शब्द के साथ मस्ती जोड़ कर फ़ाक़ामस्ती जैसा नया लफ्ज ईजाद किया जिसने तंगी की गुज़र बसर को अघाए हुए लोगों की जमात में ईर्ष्या के लायक बना दिया। तंगहाली में संघर्ष का माद्दा हो, आंतरिक ऊर्जा , भविष्य पर भरोसा हो और सच्चाई की दिव्यता हो तभी फाफामस्ती उभर कर सामने आती है। फ़ाक़ों में भी चैन से गुज़र-बसर करना ही फ़ाक़ामस्ती है। फ़क़ीराना-ठाठ भी यही है। फ़ाक़ा में भूखों मरने का भाव कहीं नहीं है अलबत्ता उपवास, तंगी, गरीबी आदि। भाव उसमें हैं। दरअसल फाका शब्द में मूल रूप से अभाव परिलक्षित होता है। विद्वान इसकी दार्शनिक व्याख्या करते हैं जिसे फ़कीर, फ़कीरी के आईने में समझा जा सकता है जो बना है फक्र से। फक्र में निहित अभाव का अर्थ विपन्नता या गरीबी से लगाया जाए तो फकीर वह व्यक्ति हुआ जो गरीब है। मगर भारत समेत तमाम एशियाई मुल्कों में फकीर शब्द का अर्थ सूफी संत से लगाया जाता है। फकीर वह है जो सांसारिक मोहमाया से दूर है और ईश भक्ति में लीन है। सूफियाना व्याख्या के मुताबिक फकीर वह नहीं है जिसकी झोली खाली है बल्कि फकीर वह है जिसके मन में इच्छाओं, तृष्णाओं का अभाव है। अर्थात जो संतुष्ट है। फक्र (fqr) की व्याख्या अरबी वर्ण-विग्रह से भी की जाती है। फे से फाका अर्थात उपवास, क़ाफ़ से किनाअत अर्थात संतोष और रे से रियाज़त अर्थात समर्पण। फ़कीर में यही गुण सर्वोपरि हैं। फकीर के पास अध्यात्म की पूंजी होती है। जो आत्मज्ञानी है वही फकीर है। फ़क़्र में अभाव का जो भाव है उसका अभिप्राय यही है कि आपके पास जब तक ईश्वर नहीं है तब तक फ़क्र है। जब आपको ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है तो तब आप फ़क़ीर कहलाते हैं जो फ़ख्र के काबिल है। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Thursday, January 29, 2009 अजित वडनेरकर पर 4:00 AM 17 comments: जड़ में मट्ठा डालिये…[खानपान-5] कि सी भी समस्या का आधा-अधूरा समाधान नहीं बल्कि उसका समूल नाश होना चाहिए। इस संदर्भ में जड़ों में मट्ठा डालने वाला मुहावरा भी प्रचलित है। मट्ठा यूं तो दही से बना स्वादिष्ट पेय होता है पर यह इतना प्रभावी है कि किसी वनस्पति की जड़ों में इसे पानी की जगह डाला जाए तो वह समूल नष्ट हो जाती है। कूटनीति के जनक कौटिल्य अर्थात चाणक्य ने भी मट्ठे के इसी गुण को जानकर राज्यनीति में इसका प्रयोग किया। यूं मट्ठा और दही में गुण संबंधी कोई फर्क नहीं है। दही में पानी मिलाकर बिलोने से मट्ठा बन जाता है। ताज़े दही से बना मट्ठा बेहद पाचक होता है और पेट संबंधी समस्याओं से निज़ात के लिए खाली पेट सैंधा नमक, जीरा और कालीमिर्च के चूर्ण के साथ मट्ठा पीने की सलाह दी जाती है। कहा जा सकता है कि पेट की समस्याओं को यह जड़ से मिटा सकता है। मट्ठा बना है संस्कृत की मथ् या मन्थ धातु से जिसमें आघात करना, हिलाना, घुमाना, रगड़ना, मिश्रण करना जैसे अर्थ हैं। संस्कृत का मन्थनः या हिन्दी का मन्थन/मंथन शब्द इससे ही बना जिसमें यही सारे भाव समाहित हैं। मन्थ् से बने मन्थर शब्द का अर्थ होता है धीमा, मन्द, विलंबित, टेढ़ा, वक्र, जड़, मूर्ख आदि। कैकेयी की दासी कुब्जा kubja का नाम कूबड़ की वजह से ही पड़ा था। उसका दूसरा नाम था मन्थरा manthara जो इसमें शामिल वक्रता या टेढ़ेपन के भाव के चलते ही उसे मिला होगा। क्योंकि उसे मंदबुद्धि या मूर्ख तो नहीं कहा जा सकता। मन्थ् का एक अन्य अर्थ है क्षुब्ध करना। अगर दही बिलोने की प्रक्रिया देखें तो मथानी की उमड़-घुमड़ से तरल में जिस तरह का झाग उत्पन्न होता है, जैसी ध्वनि पैदा होती है उससे क्षुब्ध करने का भाव भी स्पष्ट हो रहा है। मन्थन का अर्थ हिन्दी में आम तौर पर विचार-विमर्श होता है। भाव वही है कि किसी मुद्दे पर समग्रता के साथ सोच-विचार, तर्क-वितर्क करना ताकि निष्कर्ष रूपी रत्न प्राप्त हो सकें। मन्थन की क्रिया से कुछ न कुछ निकलता ही है। सागर मन्थन से चौदह रत्न निकले थे। दही बिलोने से घी मिलता है। इसी तरह वैचारिक मन्थन से सत्य की प्राप्ति होती है। मन्थन करने का उपकरण मन्थनी कहलाता है जिससे मथानी शब्द बना है। मन्थ/मथ का अपभ्रंश हुआ मट्ठ जिससे बना मट्ठा या मठा। मंथन या मथने के लिए हिन्दी में बिलोना शब्द भी प्रचलित है। यह बना है विलोडन/ विलोडनीयं शब्द से। विलोडन > विलोअन > बिलोना। इसके मूल में हैं लुट/लुठ/लुड जैसी धातुएं जिनमें क्षुब्ध करने-होने, घुमाने-घूमने, हरकत करने जैसे भाव हैं। हिन्दी में लुढ़कना, लोट-पोट होना, लोटना जैसे शब्द इन्ही धातुओं से निकले हैं। मराठी में लोटना के लिए लोळ शब्द है। लुड् में आ उपसर्ग लगने से आलोडन शब्द भी बनता है जिसका अर्थ भी मंथन ही है। मथानी की तर्ज पर बिलोने की क्रिया कराने वाला उपकरण बिलोनी कहलाता है। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Wednesday, January 28, 2009 अजित वडनेरकर पर 3:22 AM 11 comments: लस्सी दा जवाब नहीं…[खानपान-3] लस्सी तरावट पैदा करती है इससे यह न समझा जाए कि यह सिर्फ गर्मियों में पीने की चीज़ है। लस्सी बारहों महिने पी जा सकती है… दु निया का सबसे स्वादिष्ट पेय कौन सा है ? अगर दार्शनिक किस्म का जवाब चाहिए तो हम पानी का नाम ले देंगे पर पेय-सूची से अगर उसे भूल जाएं (क्योंकि वो तो सबमें है ही) और बात अगर स्वाद और सेहत से जुड़ते पेयों की हो रही हो तो लस्सी का जवाब नहीं है। स्वादिष्ट में भी हमारा मत नमकीन जीरा लस्सी के पक्ष में जाएगा। क्योंकि इसमें गुलाबजल की ज़रूरत नहीं है। मीठी लस्सी में अगर गुलाबजल के छींटे न हों तो बर्फ चाहे जितनी डाल दीजिए, तरावट का एहसास जीभ को हो जाता है, दिमाग़ को नहीं होता। लस्सी की व्युत्पत्ति जानने से पहले यह भी जान लें कि इसका संबंध डांस से भी है। लस्सी lassi तरावट पैदा करती है इससे है यह न समझा जाए कि यह सिर्फ गर्मियों में पीने की चीज़ है। लस्सी बारहों महिने पी जा सकती है। लस्सी का डंका तो विदेशों में भी बज रहा है। सुना है कि यूरोप की किसी पेय-स्पर्धा में लस्सी को सर्वश्रेष्ठ पेय घोषित किया जा चुका है। लस्सी बनाहै संस्कृत के लसीका से जिसमें तरल पदार्थ के साथ गन्ने के रस का भी भाव है। यह बना है संस्कृत की लस् धातु से जिसमें प्रकाश में आना, चमकना, नचाना, क्रीड़ा करना, खेलना, लहराना, फड़फड़ाना, फूंक मारना, किलोल करना, आवाज़ करना, ध्वनि करना, गूंजना आदि भाव शामिल हैं। नृत्य के लिए संस्कृत-हिन्दी में एक खास शब्द है लास्य। जिस नृत्य में आंगिक चेष्टाओं और विन्यास के जरिये मनोभावों को प्रकट किया जाता है वही लास्य है। लस्सी का इस लास्य से गहरा संबंध है। लस् में निहित उक्त भावों पर गौर करें तो पता चलता है कि ये तमाम गत्यात्मक भाव है अर्थात इन सभी क्रियाओं में गति, रफ्तार, झलक रही है। लस्सी बनाने की प्रक्रिया अर्थात दही बिलोने की प्रक्रिया को देखें। यह तरल बनाने की प्रक्रिया है। दही की अवस्था अर्धठोस होती है। इसे तरल बनाकर ही इसमें गति पैदा की जा सकती है। लगातार दही मिश्रित पानी का आलोड़न होता है। यह क्रिया नृत्य जैसी ही है। पानी में जैसे किलोल के दौरान लहरे उत्पन्न होती हैं वही दही बिलोने के दौरान भी होती है। इसमें लस् में निहित सभी अर्थ उजागर हो रहे हैं। लसीका (अपभ्रंश लस्सी) नाम के तरल को एक विशिष्ट पेय बनाने में यही क्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। लस् धातु से बने कुछ अन्य शब्द भी हैं जिनमें तरलता का भाव है मगर ये शब्द और इनके अर्थ सुहावने नहीं हैं। एक शब्द हिन्दी में आमतौर पर मुहावरे की तरह इस्तेमाल करते हैं लिजलिजा अर्थात चिपचिपा, ढीला। जिससे हम दूर रहना चाहें, जिसके व्यक्तित्व में स्थिरता न हो, जो अनावश्यक आपसे जुड़ना चाहे। ऐसे व्यक्तित्व अक्सर चिपकू भी कहलाते हैं। इस लिजलिजा की रिश्तेदारी भी लस् से ही है जिससे लिसलिसा और लसलसा जैसे शब्द बने जो चिपचिपा के अर्थ में प्रयोग होते हैं। लिसलिसा का ही प्रतिरूप है लिजलिजा। साफ है कि कि थूक अथवा लार के लिए लसिका शब्द का प्रयोग क्यों होता है और इन्हें स्रावित करने वाली अति सूक्ष्म नलिकाएं लसिका ग्रंथि कहलाती हैं। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Monday, January 26, 2009 अजित वडनेरकर पर 8:10 PM 30 comments: बंदरगाह से बंदर की रिश्तेदारी ! [आश्रय-6] बंदरगाह शब्द फारसी का है जिसमें इसकी दो व्युत्पत्तियां मिलती हैं। ब चपन से ही भूगोल की किताबों में अक्सर बंदरगाह शब्द सिर्फ इसी वजह से आकर्षित करता रहा है क्योंकि इसमें बंदर शब्द आता है। बंदरगाह शब्द का अर्थ समझा तो पता चला कि समंदर किनारे वह स्थान बंदरगाह कहलाता है जहां जहाज रुकते है। यूं शब्दविलास के स्तर पर पेड़ को भी बंदरगाह कह सकते हैं क्योंकि वहां बंदर रुकते हैं। वैसे हिन्दी का बंदर शब्द संस्कृत के वानर से बना है। बंदरगाह वाले बंदर शब्द की आमद कहां से हुई? बं दरगाह (bandargah) शब्द मूलतः फारसी का है जो तीन शब्दों से मिल कर बना है बंद+दर+गाह । बंद यानी घिरा हुआ , दर यानी दरवाजा, गेट और गाह यानी स्थान, ठिकाना। इस तरह जहाजों के रुकने के स्थान के रूप में बंदरगाह का अर्थ हुआ तीन ओर भूमि से घिरा हुआ समुद्र अथवा खाड़ी जहां जलपोत ठहरते हों। फारसी का बंद शब्द हिन्दी में भी प्रचलित है जो कई अर्थों में प्रयुक्त होता है जैसे घुटा हुआ, ढका हुआ, घेरा हुआ आदि। यह बना है संस्कृत की बंध धातु से जिसमेकसने, समेटने, संकीर्ण करने, बांधने आदि का भाव है। बांध, बंधु, बंदी, बंधन आदि शब्द इसी मूल से पैदा हुए हैं। इसी तरह दर शब्द भी संस्कृत मूल का है और द्वारम् से बना है जिसके फारसी रूप है दर, दर्रा, दरवाज़ा आदि। दरगाह भी इसी मूल से बना है। गाह अर्थात ठिकाना या स्थान शब्द की रिश्तेदारी संस्कृत के गुहा अथवा गृह से मानी जा सकती है जिसका मतलब स्थान, ठिकाना, घिरा हुआ क्षेत्र आदि होता है। दू सरी व्युत्पत्ति के मुताबिक बंदरगाह शब्द बोनेहदार > बोनदार > बोन्दर से बना है। फारसी में बोनेहदार (bonehdar) राजस्व विभाग का एक आला अफसर होता था जिसके जिम्मे समुद्र तट से होने वाले व्यापार की कर वसूली का काम था और वह वसूल हुए लगान अथवा अन्य महसूल का हिसाब किताब रखता था। इसी वसूली अफसर के ठिकाने के लिए बोन्दर ( बंदर) के साथ गाह शब्द लगा है जिससे बना बंदरगाह अर्थात समुद्रपारीय व्यापार की चुंगी वसूलने का स्थान। जाहिर सी बात है कि जहाज जब किनारे पर लंगर डालता है तो माल की लदाई, उतराई, खरीद फरोख्त तौल जैसी कई क्रियाएं भी वहां होती हैं जो सब कर की सीमा में आती है लिहाजा बंदरगाह शब्द का अर्थ विस्तार हुआ और गोदी अथवा पोर्ट भी इसके दायरे में आ गए। वैसे मध्यकालीन ईरान की कृषि व्यवस्था से भी बोनेह शब्द जुड़ा हुआ है। बोनेह एक किस्म की बटाई पर खेती की व्यवस्था थी जिसमें पांच से आठ व्यक्तियों का समूह बड़ी जोत या बड़ी खेती वाले गांवों में या ऐसे जमींदारों के लिए जो बड़ी काश्त के मालिक थे, फसली मौसम के दौरान कृषि से जुड़े समस्त कार्यों की जिम्मेदारी संभालते थे जिसमें बुवाई से लेकर फसल की कटाई और फिर उसकी बटाई भी शामिल थी। इस समूह के मुखिया को सर बोनेह कहते थे। राजस्व वसूली के अर्थ में बोनेहदार भी इसी कृषि संस्कृति से निकला शब्द है जो बाद में बंदर के रूप में रूढ़ हो गया। दुनियाभर में बंदर नाम के अनेक शहर हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये सब समुद्र तटवर्ती ही हैं। ईरान का बंदरअब्बास शहर फारस की खाड़ी का मशहूर बंदरगाह रहा है जिसका नामकरण शाह अब्बास के नाम पर किया गया। मुंबई में बंदर नाम से जुड़े कुछ ठिकाने हैं मसलन अपोलोबंदर या बोरीबंदर। मुंबई के ये सभी इलाके समंदर के किनारे स्थित हैं। अपोलोबंदर इलाके के नाम के साथ लगे बंदर शब्द पर कोई मतभेद नहीं है कि यह जलीय व्यापार केंद्र के तौर पर प्रचलित बंदरगाह से ही आया है अलबत्ता अपोलो शब्द के बारे में अलग-अलग नजरिया ज़रूर है। कुछ संदर्भ इसे पखाड़ी (बसाहट, बस्ती) से जोड़ते है जिसका उच्चारण अग्रेज पल्लो करते थे और कुछ संदर्भों में इसका रिश्ता पाल से जोड़ा गया है जिसमें युद्ध पोत का भाव निहित है। यहां गौरतलब है कि प्राचीन जलयान पालों के सहारे चलते थे। इसे पल्लव बंदर (pallav bandar ) से व्युत्पन्न भी माना जाता है। तटीय कोलियों की ज़बान में पल्लव का अर्थ होता है सघनता, समूह आदि मगर इस बात का खुलासा नहीं है कि स्थान विशेष के अर्थ में समूह (पल्लव) शब्द का अर्थ क्या है क्योंकि बंदरगाह पर अगर कोई जमावड़ा है तो वह सिर्फ नौकाओं और जलयानों का ही होता है। अरब सागर के मुंबई तटीय क्षेत्र में पल्वा ( palwa bandar ) मछली की बहुतायत है। अपोलो बंदर के नामकरण में इस पल्वा का भी शुमार है। जो भी हो, इस विषय में किसी भी संदर्भ में अपोलो शब्द का रिश्ता ग्रीक पुराणों में उल्लेखित अपोलो से नहीं जोड़ा गया है जिससे जाहिर है कि अपोलोबंदर का पूर्वार्ध विदेशी नहीं है। इसी तरह बांद्रा का नाम भी बंदर अर्थात पोर्ट की वजह से ही पड़ा है। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Pictures have been used for educational and non profit activies. If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture. Share अजित वडनेरकर पर 3:06 AM 27 comments: सूरज की रस्सियां जीव-जगत को, प्रकृति को कलुष से, तमस से, अंधकार से मुक्ति दिलाने से बड़ा पुण्य और क्या हो सकता है ? र सूर्योदय के समय देखते-ही देखते एक एक कर सहस्रों रश्मियां जल-थल में व्याप्त हो जाती हैं। स्सी बडे़ काम की चीज़ है। जब इससे खींचने-लटकाने जैसे काम ले लिए जाते हैं तब इससे मुहावरे बन जाते हैं। मसलन सबक के बावजूद स्वभाव न बदलने वाले के लिए रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई मुहावरा खूब इस्तेमाल होता है। रस्सी पर चलना यानी कठिन काम को अंजाम देना। रस्सी तुड़ाना यानी पीछा छुड़ाना। खींचातानी के लिए रस्साकशी आदि कई मुहावरे रस्सी से जन्मे हैं। यह रस्सी कहां से जन्मी ? रस्सी शब्द बना है संस्कृत शब्द रश्मिः से जिसका हिन्दी रूप रश्मि है। इस शब्द से हमारा परिचय प्रकाश किरण के रूप में ही है। दरअसल रश्मि शब्द बना है संस्कृत धातु अश् से जिसमें व्याप्ति, भराव, पहुंचना, उपस्थिति, प्रविष्ट होना जैसे भाव हैं। जाहिर है प्रकाश-रेख, अंशु या किरण में ये तमाम भाव मौजूद हैं। कोई भी प्रकाशपुंज अंधकार को आलोकित करते हुए स्वयं वहां प्रवेश नहीं करता बल्कि उसकी रश्मियां वहां प्रकाश को भरती हैं। सूर्योदय के समय देखते-ही देखते एक एक कर सहस्रों रश्मियां जल-थल में व्याप्त हो जाती हैं। ये किरणें ही ज्योतिपुंज से उत्सर्जित ऊर्जा की वाहक होती हैं। रश्मि में भाव है पुण्य का। आलोकित करना-प्रकाशित करना ये पुण्यकर्म हैं। जीव-जगत को, प्रकृति को कलुष से, तमस से, अंधकार से मुक्ति दिलाने से बड़ा पुण्य और क्या हो सकता है ? रश्मिरथी ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जो पुण्यात्मा हो। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का प्रसिद्ध खंडकाव्य है रश्मिरथी जो कर्ण के महान चरित्र पर लिखा गया है। गौरतलब है कि कर्ण कौरवों के पक्ष में थे परंतु वे तेजस्वी, पुण्यात्मा थे। दरअसल ये रश्मियां डोर हैं। माध्यम हैं प्रकाश को भूलोक पर पहुंचाने का। सूर्योदय या सूर्यास्त के समय ये रश्मियां नज़र भी आती हैं और सचमुच सूर्य और पृथ्वी के बीच तनी हुई डोर की तरह ही जान पड़ती हैं। रश्मि का ही अपभ्रंश रूप है रस्सी। इसका पुल्लिंग हुआ रस्सा जिसका आकार या मोटाई रस्सी से अधिक होती है। रस्सी एक माध्यम है। माध्यम की आवश्यकता व्याप्ति के लिए होती है। रस्सी की मदद से पहाड़ पर चढ़ा जाता है, खाई में उतरा जाता है। कुंएं से पानी खींचा जाता है। ये तमाम क्रियाएं प्रविष्ट होने, उपस्थित होने, व्याप्त होने, पहुंचने से जुड़ी हैं। रस्सी से ही बना है रास शब्द जिसका मतलब होता है लगाम। गौर करें लगाम के जरिये सारथी अपने अपना आदेश जुए में जुते पशु तक पहुंचाता है। लगाम ढीली छोड़ना और लगाम कसना जैसे मुहावरों में काम के संदर्भ में आदेश-निर्देश के नरम अथवा कठोर होने का पता चल रहा है। रास थामनामुहावरे का अर्थ है मार्गदर्शन करना, नेतृत्व करना। रास का एक अन्य अर्थ कमरबंद या करधनी भी होता है। तनातनी के अर्थ में रस्साकशी एक आम मुहावरा है। यह बना है रस्सा+कशी(कश-खींचना) अर्थात यह संकर शब्द है जो फारसी और संस्कृत के मेल से बना है। हालांकि कश शब्द मूलतः संस्कृत की कर्ष् धातु से जन्मा है जिसमें खींचने का भाव है। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Saturday, January 24, 2009 अजित वडनेरकर पर 11:55 PM 21 comments: शुक्रिया साथियों, फिर मिलेंगे...[बकलमखुद-85] ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी , प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा और रंजना भाटिया को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के चौदहवें पड़ाव और तिरासीवें सोपान पर मिलते है पेशे से पुलिस अधिकारी और स्वभाव से कवि पल्लवी त्रिवेदी से जो ब्लागजगत की जानी-पहचानी शख्सियत हैं। उनका चिट्ठा है कुछ एहसास जो उनके बहुत कुछ होने का एहसास कराता है। आइये जानते हैं पल्लवी जी की कुछ अनकही- ग्वा चलता रहेगा सफर... लियर के बाद मेरा ट्रांसफर उज्जैन हो गया ! वहाँ मैं केवल छह महीने रही!उज्जैन केवल मंदिरों का शहर है!चाहे कितने भी मंदिर देख लो फिर भी कुछ मंदिर छूट ही जायेंगे! मैं ठहरी पूजा पाठ से दूर रहने वाली इसलिए मुझे उज्जैन जाकर कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया हाँ मम्मी जरूर प्रसन्न हुईं महाकाल की नगरी में आकर! उज्जैन के बाद मैं भोपाल ट्रांसफर होकर आ गयी! इस बार रेगुलर फील्ड पोस्टिंग के स्थान पर रेलवे पुलिस में पोस्टिंग मिली! रेलवे क्राइम देखना बिलकुल अलग अनुभव है! जी.आर.पी. में मुझे दो साल होने को आये हैं...इस दौरान मैंने जितना ट्रेन में सफ़र किया उतना पूरी जिंदगी में नहीं किया था!ट्रेन में सफ़र का अपना अलग मज़ा है....मैंने सफ़र के दौरान ही बहुत सारी किताबें पढ़ डालीं जिनके लिए वैसे समय नहीं मिल पता था!इसके अलावा कई सारी नज्में भी ट्रेन में ही लिखीं! सीखा है ज़िंदगी से बहुत कुछ.... कहते हैं न की जिंदगी हर कदम पर कुछ न कुछ सिखाती है!मेरे लिए तो ये बात एकदम खरी साबित हुई! जीवन के अच्छे बुरे अनुभवों से जितना मैंने सीखा ,उतना कोई टेक्स्ट बुक और टीचर नहीं सिखा पाए!और खासकर कड़वे अनुभव तो कुछ ज्यादा ही सिखा गए!बचपन से ही कुछ वाकये ऐसे हुए जिनसे मैंने एक बात गाँठ बाँध ली कि किसी भी रिश्ते में कभी किसी को बाँध के नहीं रखना है! जब मैं सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ती थी तब मेरी एक बहुत पक्की सहेली हुआ करती थी! सही पूछो तो दोस्ती का मतलब ही उससे दोस्ती होने के बाद पता चला! पूरे स्कूल में हमारी दोस्ती मशहूर थी! तीन साल तक हम गहरे दोस्त रहे लेकिन आठवी क्लास के बाद स्कूल बदला और हम सरकारी स्कूल में पढने चले गए! वहाँ बहुत सारी नयी लड़कियों से पहचान हुई!पता नहीं क्यों मेरी दोस्त को मेरा किसी और लड़की से बात करना बुरा लगने लगा! मैंने उसे कई बार कहा कि मेरी बेस्ट फ्रेंड वही है लेकिन उसने शर्त रख दी कि यदि मैं किसी और से बात करुँगी तो वो दोस्ती ख़तम कर देगी! मेरे लिए उसकि बात मानना संभव नहीं था! फाइनली हमारी दोस्ती सिर्फ हाय हेलो तक सीमित होकर रह गयी! तब से मैंने सोच लिया कि कभी किसी पर खुद का लादना नहीं चाहिए!अनिच्छा से व्यक्ति दो चार बार तो आपकी बात मान लेगा फिर कब आपसे दूर होता जायेगा ,पता भी नहीं चलेगा! लेकिन आज भी जब दोस्तों कि बात चलती है तो सबसे पहले वही याद आती है! कम से कम अपेक्षाएं.. वक्त जैसे जैसे बीतता गया खुद में बहुत सारे बदलाव आते गए! इस सीखने के क्रम में एक और जो बहुत महत्वपूर्ण चीज़ मैंने सीखी वो ये कि अपनी अपेक्षाओं को कम ही रखना चाहिए! पहले अगर मैं किसी के लिए कुछ करती थी तो बदले कि चाह रहती थी और जब कभी वो व्यक्ति मेरे लिए कुछ नहीं करता था तो बहुत दुःख होता था ! यहाँ तक कि बहुत दिन तक मैं उसके व्यवहार से दुखी रहती थी!फिर धीरे धीरे मैंने इस बारे में सोचा और चूंकि अपेक्षाएं पूरी तरह ख़त्म तो नहीं की जा सकती लेकिन जितनी कम की जा सकती हैं उतना मैं कर चुकी हूँ! अब कोई कुछ करे या न करे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता! क्योकी मैं ना सुनने के लिए मानसिक रूप से तैयार हूँ! थोडा सैलानीपन...थोड़ी आवारगी... मुझे बचपन से ही घूमने और नयी नयी जगह देखने का बहुत शौक था लेकिन पढाई के कारण ज्यादा घूमने का मौका नहीं मिला!फिर नौकरी में आकर और ज्यादा व्यस्तता बढ़ गयी तो शुरुआत के तीन चार साल तो कहीं जा ही नहीं सकी! लेकिन चार साल पहले एक जनवरी को नए साल के रेजोल्यूशन के रूप में मैंने सोच लिया , चाहे जो हो साल में एक बार छुट्टी लेकर कहीं न कहीं घूमने ज़रूर जाउंगी! और उसके बाद से कश्मीर, गोवा, मसूरी, वैष्णोदेवी जा चुकी हूँ और आज राजस्थान जाने की तैयारी कर रही हूँ!आज शाम की ही ट्रेन है!सोचती हूँ अपने मतलब के संकल्प इंसान कितनी जल्दी पूरे करता है...यूं तो बरसों से कोई न कोई रेजोल्यूशन रहता ही था मसलन सुबह जल्दी उठकर पढाई करना, स्कूल में टॉप करना, कोई नयी भाषा सीखना वगैरह वगैरह...लेकिन इन सबमे मेहनत की ज़रुरत थी लिहाजा कोई भी पूरा न हो सका! पर मुझे उम्मीद है ये घूमने वाला ज़रूर ताजिंदगी चलता रहेगा! शुक्रिया दोस्तों...बनें रहें साथ यूं तो लिखने को बहुत कुछ है लेकिन यहाँ हर चीज़ को नहीं समेटा जा सकता है! इसलिए अब अपनी गाथा यही ख़त्म करुँगी! अजित जी का दिल से आभार मानती हूँ क्योंकि उनके कहने पर लिखना शुरू किया तो ऐसा लगा जैसे पूरी लाइफ रीवाइंड हो गयी है! बकलमखुद लिखते लिखते अपने बचपन से लेकर आज तक की सारी जिंदगी मानो फिर से जी ली! साथ ही अजित जी के धैर्य से भी मैं खासी प्रभावित हूँ क्योंकि लगातार लिखकर देते रहने के वायदे के बावजूद व्यस्तताओं के कारण मैं कई कई दिनों तक उन्हें लिख कर न दे सकी लेकिन उन्होंने एक भी बार खीझ व्यक्त नहीं की! न ही जल्दी लिखकर देने को कहा! मैं अपने आप को खुशकिस्मत मानती हूँ की मेरी जिंदगी में दोस्तों की कोई कमी नहीं! हर जगह मुझे हमेशा बहुत अच्छे लोग मिलते रहे हैं! मेरी सबसे अच्छी दोस्त मेरी मम्मी हैं और रोज़ सुबह उनसे फोन पर बात करके ही मेरा दिन शुरू होता है! ब्लॉगिंग में कदम रखने के बाद भी कई अच्छे लोगों से परिचय हुआ और नए दोस्त बने! अनुराग, कुश, सुजाता अच्छे दोस्त बन गए! अजित जी ,समीर जी , रवि रतलामी जी से मुलाकात का अवसर भी मिला ! इसके साथ ही आप सभी ने मुझे पढ़ा और मेरे बारे में आपकी टिप्पणियों ने आत्म विश्लेषण का एक और अवसर दिया है! सभी का बहुत बहुत शुक्रिया.... [समाप्त] ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Friday, January 23, 2009 अजित वडनेरकर पर 2:53 AM 18 comments: रुक्का, रोकड़, रोकडिया [सिक्का-15] हिन्दी–उर्दू का एक और शब्द है रुक्का। यह भी अरबी भाषा का है और इसका सही रूप है रुक़अ: यानी काग़ज की पर्ची, चिट्ठी-पत्री आदि। दरअसल यही रुक़्का रकम है। हि ... नकदी, कैश, जमा, पूंजी, धन आदि के अर्थ में रोकड़ शब्द हिन्दी की बोलियों सहित द्रविड़-परिवार की विभिन्न भाषाओं में भी प्रचलित है।... ... Anonymous said... तो ये था रुक्के से रक़म का रिश्ता। जानकारी बढ़ाने का शुक्रिया। पोल-पहेली की पहल भी शानदार है। हमने भी टिक कर दिया है। आपका ब्लाग लगातार निखरता जा रहा है। ऐसे ही लिखते रहें। October 27, 2007 3:33 AM अनामदास said... देखिए, शब्द कहाँ से चलते हैं, किस रूप में कहाँ पहुंचते हैं, कितने अर्थ बदलते हैं. मैं जितना जानता हूँ, अरब जगत में रकम का मतलब अब नंबर से है, संख्या और आंकड़ा. फ़ोन नंबर, अकाउंट नंबर, गाड़ी का नंबर प्लेट सब रकम हैं. October 27, 2007 3:37 AM अनामदास said... और हाँ, बांग्ला को कैसे भूल सकते हैं जहां रकम का आशय प्रकार से है. की रकोम, किस तरह, किस प्रकार... October 27, 2007 3:38 AM अजित said... वाह वाह अनामदासजी, मज़ा आ गया बांग्ला रकोम की कैफ़ियत जानकर । शुक्रिया जानकारी के लिए। October 27, 2007 3:50 AM काकेश said... कि रोकम आपनी इतू भालो लिखछेन... आप किस तरह इतना अच्छा लिखते हैं. ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें सफर की पिछली कड़ी नोट करें, नोट दें, नोट लें पर आरडी सक्सेना अपनी टिप्पणी में रुक्का शब्द को याद करते हैं। इस शब्द पर डेढ़ साल पहले शब्दों के सफर पर लिखा जा चुका है। मगर उसमें संशोधन की काफी गुंजाइश थी। पेश है सिक्का श्रंखला के लिए सम्पूर्ण संशोधित वही आलेख- "नो टशीट पर लिखा जाने वाला 'नोट' ही सरकारी काम की रफ़्तार की कुंजी है | हर दृष्टि से यह तय सा है कि सरकारी दफ्तरों में कोई काम बिना 'नोट' के नहीं होता | करेंसी नोट के लिए हाल के वर्षों तक प्रयुक्त होने वाला 'रुक्का' शब्द भी शायद लिख कर दिए जाने वाले 'नोट' को ही ध्वनित करता प्रतीत होता है |" न्दी-उर्दू में बड़ी धनराशि के लिए रकम शब्द का प्रयोग किया जाता है। आमतौर पर नकद या सोना-चांदी के अर्थ में इस लफ्ज का इस्तेमाल ज्यादा होता है। हिन्दी का एक मुहावरा है-रकम खड़ी करना जिसके मायने हैं माल का बिकना या नकदी प्राप्त होना वगैरह। रकम यूं तो अरबी ज़बान का लफ्ज है और फारसी-उर्दू के ज़रिये हिन्दी में दाखिल हुआ मगर इस शब्द की रिश्तेदारी संस्कृत के रुक्म जिसका अर्थ है चमकदार , उज्जवल से भी मानी जाती है। इससे बने रुक्म: का मतलब होता है सोने के आभूषण या जेवर। इसी तरह रुक्मम् का मतलब होता है सोना या लोहा। श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी और उसके भाई रुक्मिन् का नामकरण भी इसी रुक्म से हुआ है। यही रुक्म अरबी भाषा में रकम के रूप में नज़र आता है। यहा इसके मायने हैं लिखना, चिह्नित करना या अंकन करना अथवा अंक। यह बना है रक्म से (संस्कृत रुक्म से समानता पर गौर करें) जिसमें लिखने का भाव है। हिब्रू में रकम का अर्थ होता है कशीदाकारी करना या एम्ब्रॉयडरी करना जबकि फिनिशी ज़बान में इसका मतलब निकलता है बुनाई करना। फिनिशी और हिब्रू में रक़म के अर्थों पर गौर करें। कशीदाकारी और बुनाई मूल रूप से वस्त्र को और समृद्ध बनाने की कलाएं हैं। कला यूं भी समाज को समृद्ध ही करती हैं। बुनाई, सिलाई और कशीदाकारी से वेल्यू एडिशन हो रहा है। वस्तु कीमती हो रही है। वह रकम बन रही है अर्थात मूल्यवान बन रही है। मालवी में तो गुणवान मनुष्य के लिए भी रकम का प्रयोग होता है। हालांकि अब इसका प्रयोग संदर्भित व्यक्ति के परले दर्जे के चालबाज या शातिर होने के अर्थ में ज्यादा होता है कि फलां व्यक्ति बहुत बड़ी रकम है अर्थात चलता पुर्जा है। रकम में शामिल लिखने और अंकन करने के अर्थ से साफ है कि जेवरात पर सोने चांदी की बारीक कारीगरी से लेकर धातु के टुकड़ों पर मूल्यांकन, हिसाब-किताब का लेखन आदि भाव भी इसमें शामिल हैं। रक्म से बने बने रकमी शब्द का मतलब होता है कीमती चीज़ या लिखा हुआ कागज। गौरतलब है कि पुराने ज़माने में दस्तावेज़ों की एक किस्म होती थी रकमी दस्तावेज़ अर्थात अंकित प्रपत्र। रकम के लिखने संबंधी अर्थ से जुड़ता हुआ हिन्दी–उर्दू का एक और शब्द है रुक्का । यह भी अरबी भाषा का है और इसका सही रूप है रुक़अ: यानी काग़ज की पर्ची, चिट्ठी-पत्री आदि। दरअसल यही रुक़्का रकम है। जाहिर है कि इस रुक्का का मतलब मौद्रिक लेन-देन संबंधी कागजात से ही है मसलन हुंडी, प्रोनोट वगैरह। ये कागजात भी तो धन यानी रकम ही हुए न? नवाबी दौर में ये रुक्के खूब चला करते थे। यूं रुक्के का सामान्य अर्थ काग़ज़ का टुकड़ा, चिट, पुर्जा भी होता है। शायरों को भी रुक्के दौड़ाने की खूब आदत थी और आशिक-माशूक के बीच भी रुक्के दौड़ते थे। रुक्म की रिश्तेदारी रोकड़ से भी जुड़ती है। नकदी, कैश, जमा, पूंजी, धन आदि के अर्थ में रोकड़ शब्द हिन्दी की बोलियों सहित द्रविड़-परिवार की विभिन्न भाषाओं में भी प्रचलित है। जॉन प्लैट्स के हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी कोश के मुताबिक रोकड़ का जन्म संस्कृत धातु रोकः से हुआ है मगर वाशि आप्टे के प्रसिद्ध संस्कृत-हिन्दी कोश में रोकः शब्द का उल्लेख तक नहीं है। तो भी यह तय है कि रुक्म में निहित चमक ओर इससे बने रुक्मम् का अर्थ सोना रोकड़ के नकदी वाले अर्थ को सिद्ध करता है। रोकड़ का रोकड़ा शब्दप्रयोग भी आम है। कैशियर के लिए इससे ही बना है रोकड़िया। वाणिज्यिक शब्दावली में अक्सर रोकड़ खाता या रोकड़ बही जैसे शब्द इस्तेमाल होते हैं जिसका मतलब उस रजिस्टर से है जिसमें नकदी लेन-देन के विवरण दर्ज होते हैं। हिसाब-किताब करने को रोकड़ मिलाना भी कहा जाता है। आपकी चिट्ठियां अक्तूबर 2007 में प्रकाशित पुराने आलेख पर तब जिन साथियों की टिप्पणियां मिली थीं, वे जस की तस यहां हैं- Share Wednesday, January 21, 2009 अजित वडनेरकर पर 9:55 PM 15 comments: नोट करें, नोट लें, नोट दें...[सिक्का-14] शासन की ओर से एक काग़ज़ का खरीता जारी किया जाता था जिस पर उसके बदले भुगतान की जानेवाली राशि दर्ज होती थी। इस राजकीय प्रमाण पत्र को मुद्रा के स्थान पर प्रयोग किया जा सकता था। आवश्यकता पड़ने पर राजधानी आकर इसके मूल्य के बराबर राशि का भुगतान भी प्राप्त किया जा सकता था। का यूरोपीय यात्री मार्कोपोलो(1254-1324) ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में चीन की आश्चर्यजनक काग़ज़ी मुद्रा का उल्लेख किया है। शुरुआती दौर में इसे वहां फ्लाइंग-करंसी या उड़न-मुद्रा कहा गया क्योंकि तेज हवाओं से यह अक्सर हाथ से उड़ जाती थी। गज़ के आविष्कार का श्रेय अगर चीन को दिया जाता है तो कागज़ी मुद्रा की शुरुआत भी चीन में ही हुई। काग़ज का उत्पादन सीखने की नौ सदियों बाद ही चीन को धातु मुद्रा के इस्तेमाल में आ रही व्यावहारिक दिक्कतों का निदान भी काग़ज़ में ही सूझा। तांग वंश के शासनकाल में सरकार को यह महसूस होने लगा कि विशाल राज्य में धातु के सिक्कों को एक जगह से दूसरी जगह भेजना बहुत श्रमसाध्य और जोखिम का काम था। हो ये रहा था की विभिन्न टकसालों से सुदूर क्षेत्रों में कारोबारी गतिविधियों को जारी रखने के लिए भारी मात्रा में मुद्रा भेजने की व्यवस्था लगातार करना मुश्किल हो रहा था। यह कहना मुश्किल है कि काग़ज़ी मुद्रा के पीछे किसकी सूझ थी मगर तांग वंश (618-907) के शासनकाल में इसकी शुरुआत का उल्लेख है जिनका साम्राज्य चीन की पूर्वी सीमा से शुरू होकर सुदूर पश्चिमी सीमा तक पसरा था। काग़ज़ी नोट के विकास में सुंग वंश (907-1127) का युग भी महत्वपूर्ण माना जाता है। काग़ज़ी मुद्रा की तत्कालीन व्यवस्था बहुत कुछ आज की व्यवस्था जैसी ही थी। शासन की ओर से एक काग़ज़ का खरीता जारी किया जाता था जिस पर उसके बदले भुगतान की जानेवाली राशि दर्ज होती थी। इस राजकीय प्रमाण पत्र को मुद्रा के स्थान पर प्रयोग किया जा सकता था। आवश्यकता पड़ने पर राजधानी आकर इसके मूल्य के बराबर राशि का भुगतान भी प्राप्त किया जा सकता था। याद करें भारतीय नोट पर रिजर्व बैंक के गवर्नर का लिखा वह वचन- ‘मैं धारक को सौ रुपए अदा करने का वचन देता हूं।’ मुद्रा-भुगतान की यह प्रणाली चीन में बहुत कारगर साबित हुई । यूरोपीय यात्री मार्कोपोलो(1254-1324) ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में चीन की आश्चर्यजनक काग़ज़ी मुद्रा का उल्लेख किया है। शुरुआती दौर में इसे वहां फ्लाइंग-करंसी या उड़न-मुद्रा कहा गया क्योंकि तेज हवाओं से यह अक्सर हाथ से उड़ जाती थी। संयोग नहीं कि बेहिसाब खर्च के लिए रुपए उड़ाना जैसा मुहावरा काग़ज़ी मुद्रा की वजह से पैदा हुआ हो। उड़ने के साथ मुद्रा में बहने का स्वभाव भी है। अर्थशास्त्र का विकास होने पर इसमें तरलता(लिक्विडिटी) के गुण का भी पता चला। इसे आसान भाषा में समझना चाहें तो मौद्रिक तरलता से अभिप्राय किसी भी व्यवस्था में नकदी की उपलब्धता या उसके प्रसार में बने रहने से ही है। आ ज हम जिस काग़ज़ी मुद्रा को नोट के रुप में जानते हैं उसका चलन यूरोप से शुरु हुआ है। चीन में काग़ज़ी मुद्रा का प्रचलन आम होने की कई सदियों बाद यूरोप ने काग़ज़ी मुद्रा को अपनाया। रोजमर्रा के अन्य क्षेत्रों में धातु का बढ़ता प्रयोग, धातु की उपलब्धता में कमी, सिक्कों की ढलाई में बढ़ता लागत खर्च और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने की परेशानी के चलते आखिरकार यूरोप ने भी काग़ज़ी मुद्रा को अपना लियाजिसकी शुरुआत 1660 में स्टाकहोम बैंक ने की। शुरुआती दौर में सीमित दायरे में इन बैंक नोट्स का प्रसार हुआ। ये बैंक नोट काफी हद तक चीन में प्रचलित नोटों जैसे ही थे अलबत्ता इनमेंइस्तेमाल होने वाली सामग्री में यूरोप की औद्योगिक क्रांति के दौरान लगातार बदलाव आता रहा और काग़ज़ी मुद्रा को लगातार टिकाऊ बनाए रखने पर आज भी निरंतर प्रयोग चल रहे हैं। दु निया भर में जिस पेपर करंसी को आज नोट के नाम से जाना जाता है वह दरअसल अधूरा शब्द है। इसका पूरा नाम है बैंक-नोट जो एक तरह का हवाला-पत्र, वचन-पत्र था एक निर्धारित मूल्य के भुगतान हेतु। इसे खरीदा-बेचा भी जा सकता था। अपने कई गुणों की वजह से धीरे धीरे पूरी दुनिया में बैंक नोट अर्थात काग़ज़ी मुद्रा ही चलन में आ गई। हर देश में वहां का प्रमुख बैंक ही सरकार की तरफ से मुद्रा जारी करता है। सिक्कों का चलन अब सिर्फ फुटकर मुद्रा के तौर पर होता है। नोट शब्द मूलतः इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है। नोट(note) का मतलब होता है परीक्षण, गौर करना, ध्यान देना, चिह्न, जानकारी आदि। गौरतलब है कि नोट उसी gno धातु से बना है जिससे अंग्रेजी का know और संस्कृत का ज्ञान gnjyan शब्द बना है। इन दोनों में ही निरीक्षण, परीक्षण, अवगत होना, कराना, जानकारी रखन, देखना-समझना आदि भाव हैं। मूल रूप से प्राचीन लैटिन के gnoscere से gnata का रूप लेते हुए अंग्रेजी का नोट अस्तित्व में आया । लैटिन के notare से यह फ्रैंच मेदाखिल हुआ। जहां इसका रूप बना noter जिसका अर्थ है चिट्ठी, ध्यानार्थ आदि। इसी धातु मूल से अंग्रेजी का नोटिस शब्द भी बना। गौरतलब है कि नोट और नोटिस दोनों ही शब्द हिन्दी-उर्दू में बहुत ज्यादा प्रचलित शब्दों में हैं। नोट और नोटिस दोनों ही वस्तुएं ली और दी जा सकती है। नोट करना अर्थात लिखना तो खैर एक महत्वपूर्ण क्रिया है ही। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Monday, January 19, 2009 अजित वडनेरकर पर 11:59 PM 25 comments: भद्र बनें, शिष्ट बनें, शालीन बने... भंद से बने भद्र के सभ्य, शिष्ट, शालीन, श्रेष्ठ, मंगलकारी, समृद्धशाली, अनुकूल, प्रशंसनीय जैसे अर्थ उजागर हैं। बौद्ध श्रमणों-भिक्षुओं के लिए आदरसूचक भदंत शब्द की व्युत्पत्ति का आधार भी है। हि धीरे धीरे हिन्दुओं के प्रायः सभी समुदायों में मुंडन अनिवार्य हो गया और इसे रूढी की तरह किया जाने लगा। हिन्दी क्षेत्रों में पुराने ज़माने में और आज भी भदर/मृत्युभोज की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी गरीब परिवार पर बहुत भारी पड़ती है। सफर की पिछली कड़ी "हजामत का दिन यानी बालदिवस..." पर जोधपुर से संजय व्यास लिखते हैं- समृद्ध करने वाला लेख। शेव हिन्दी में तो सिर्फ़ दाढ़ी बनाने के अर्थ में ही रूढ़ हुआ है पर अंग्रेज़ी में इसके उपयोग व्यापक है और उन्ही में से एक है हेड-शेविंग यानी मुंडन। कृपया आगे स्पष्ट करें कि मुंडन के लिए राजस्थान में लोक व्यवहार में प्रचलित शब्द 'भदर' के मूल में क्या है? न्दू समाज में आमतौर पर जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों में मुंडन भी गिना जाता है। जन्म के पहले, दूसरे अथवा पांचवे वर्ष में बच्चे के केश साफ किये जाते हैं। उपनयन संस्कार अर्थात जनेऊ के वक्त भी यही क्रिया होती है। इसके उपरांत परिवार में मृत्यु हो जाने पर भी केश कटवाए जाते हैं। हर अवसर पर इसके अलग अलग नाम हैं। राजस्थान में इसे भदर कहा जाता है। भदर शब्द मेरे विचार से भद्र से ही बना है जिसकी व्युत्पत्ति भंद् धातु से हुई है। संस्कृत में हजामत या मुंडन के लिए भी भद्राकरणम् शब्द ही है। भंद से बने भद्र के सभ्य, शिष्ट, शालीन, श्रेष्ठ, मंगलकारी, समृद्धशाली, अनुकूल, प्रशंसनीय जैसे अर्थ उजागर हैं। बौद्ध श्रमणों व भिक्षुओं के लिए आदरसूचक भदंत शब्द की व्युत्पत्ति का आधार भी यही है। इसी का अपभ्रंश रूप भंते होता है। ये अलग बात है कि भोंदू, भद्दा जैसे शब्दों का जन्म भी इसी भद्र से हुआ है जो भद्र शब्द की अवनति है। भद्र से कुछ और शब्द भी बने हैं। राजस्थान के श्रीगंगानगर में एक कस्बा है भादरा। दरअसल प्राचीनकाल में यह भद्रा था जिसका नाम स्वर्णभद्रा नदी के नाम पर पड़ा। उत्तर प्रदेश के एक जिले का नाम सोनभद्र भी इसी मूल का हैभद्रा ज्योतिषीय शब्दावली में एक करण का नाम है। पृथ्वी का एक नाम सुभद्रा भी है। पूर्वी क्षेत्रों में भद्र का उच्चारण भद्दर किया जाता है। वहां बलभद्र हो जाएगा बलभद्दर ! इसी तरह राजस्थानी में भद्र का भदर रूप बना। मुंडन दरअसल उपनयन जैसे मांगलिक संस्कार पर हो या मृत्यु संस्कार पर, भद्र अथवा भदर का उद्देश्य अनुकूलन, मंगलकारी ही है। शिशु का मुंडन उसके जन्म के समय के बाल हटाना होता है ताकि नए घने बाल आ सकें इसके पीछे बालों की स्वच्छता का दृष्टिकोण ज्यादा है। ग्रंथों में इसकी कई दार्शनिक व्याख्याएं हैं जिनका संबंध बुद्धि-मेधा की प्रखरता से है। उपनयन अर्थात विद्यारम्भ संस्कार के वक्त मुंडन के पीछे भी यही भाव रहता है कि बालक के व्यक्तित्व में एक विद्यार्थी को शोभा देने वाला गाम्भीर्य, शालीनता, शिष्टता और गरिमा दिखाई पडे। शैशव की चंचल छवि के विपरीत वह शिक्षार्थी जैसा भद्र दिखे इसीलिए विद्यारम्भ के वक्त बटुक का मुंडन संस्कार किया जाता है। द्विजों में मृत्यु-संस्कार के तहत भी दसवें दिन सबसे अंत में मुंडन का प्रावधान है। उद्धेश्य वहीं है- मृत्यु के दुख से उबरने और समाज के साथ अनुकूल होने की प्रक्रिया का शुभारंभ हो सके। यह सब पिंड दान की रस्म के बाद होता है। पिंडदान की रस्म को भात की रस्म भी कहा जाता है। तर्पण के लिए जो पिंड बनाए जाते हैं वे चावल से बने होते है। चावल के लिए संस्कृत में भक्त शब्द है जिससे भात बना है। दारुण अवस्था में स्वजन की देखभाल व अन्ततः उसके न रहने के वियोग से अस्त-व्यस्त व्यक्ति सिर के बाल कटवाकर व्यवस्थित, शिष्ट और गंभीर नजर आए, भद्र नजर आए। शोकाकुल व्यक्ति को फिर से भद्र बनाने की प्रक्रिया ही भदर कहलाती थी ताकि वह समाज में समरस हो सके। भद्र का अपभ्रंश ही भदर हुआ। इसके तहत मृतक के ज्येष्ट पुत्र के सिर के बाल उतारे जाते हैं। बाद के दौर में हिन्दुओं के प्रायः सभी समुदायों में मुंडन अनिवार्य हो गया और इसे रूढी की तरह किया जाने लगा। हिन्दी क्षेत्रों में पुराने ज़माने में और आज भी भदर/मृत्युभोज की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी गरीब परिवार पर बहुत भारी पड़ती है। राजस्थान में किसी ज़माने में राजा के निधन पर पूरी रियासत द्वारा भदर कराने का उल्लेख है। महामहोपाध्याय डॉ पाण्डुरंग वामन काणे लिखित धर्मशास्त्र का इतिहास पुस्तक के अनुसार मुंडन संस्कार के प्राचीन नाम चौल, चूड़ाकरण, चूड़ाकर्म आदि हैं। संस्कृत में चूड़ा का अर्थ होता है सिर पर बंधा केश गुच्छ, शिखा, आभूषण, शिखर, चोटी आदि। चंद्रचूड़ का अर्थ हुआ जिसके सिर पर चंद्र विराजमान हैं अर्थात शिव। सिर पर धारण किए जाने वाले एक आभूषण को चूड़ामणि कहते हैं। भारतीय महिलाओं द्वार कलाई में पहने जाने वाले दुनियाभर में मशहूर आभूषण चूड़ी का जन्म भी इसी मूल से हुआ है। पहले यह चूड़ा ही था, बाद में इसका चूड़ी रूप भी प्रचलित हो गया। केश गुच्छ के लिए जूड़ा शब्द की व्युत्पत्ति कुछ लोग इस चूड़ा शब्द से भी मानते हैं। वैसे जूड़ा शब्द जुट् धातु से बना है जिससे जटा शब्द का निर्माण हुआ है। जुट् शब्द की रिश्तेदारी भी यु धातु से है जिससे सम्मिलित होने, एक साथ होने का भाव है जैसे युक्त-संयुक्त आदि। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share अजित वडनेरकर पर 4:04 AM 14 comments: हजामत का दिन यानी बालदिवस... ए ...अरबी हिजामा या ईरानी हजामत का तरीका देखिये इस वीडियो में। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह पद्धति प्रचलित है... क साल में कितनी बार बाल दिवस मनाया जा सकता है? जवाब है कम से कम महिने में एक बार तो ज़रूर। बात दरअसल चिल्ड्रेन्स डे की नहीं हो रही है बल्कि हजामत की हो रही है। कॉलेज के दिनों में बाल कटवाने के बाद हम यही कहते थे कि बालदिवस मना लिया है। बाल कटवाने को हिन्दी-उर्दू में हजामत कहते हैं और यह खूब प्रचलित शब्द है। वैसे चलताऊ हिन्दी में तो इसके लिए कटिंग शब्द ही लोकप्रिय है जो अंग्रेजी के हेयर-कटिंग से बना संक्षिप्त रूप है। कटिंग बहुत सी चीजों की होती है मगर उसके लिए हमारे यहां कटाई, कटाना जैसे हिन्दी शब्दों से काम चला लिया जाता है मगर हजामत के लिए तो तीन अक्षरों के कटिंग से काम चल जाता है। अंग्रेजी के cut का रिश्ता पुरानी जर्मनिक के kut, मध्यकालीन अंग्रेजी के kitten से है जिसका अर्थ चाकू या चाकू से काटना होता है। इस सिलसिले में हजामत बड़ा दिलचस्प शब्द है। यह बना है अरबी के हजामाह , हजामा या हिजामा से जिनका रिश्ता हज्म धातु से है। हज्म का मतलब होता है काटना, चीरा लगाना, आकार देना या सुधारना। दरअसल यह शब्द प्राचीन अरबी चिकित्साशास्त्र से आया है जिसके तहत शरीर के खास-खास स्थानों पर चीरा लगाकर अशुद्ध रक्त को निकाला जाता था ताकि विभिन्न व्याधियों से मुक्ति मिले ओर शरीर स्वस्थ रह सके। दरअसल यह एक्यूपंक्चर की तरह हजारों साल पुरानी चीनी चिकित्सा पद्धति(कपिंग) है जिसे ताओवादियों ने ईजाद किया था। यूं प्राचीन भारत और यूरोप में भी इस विधि का प्रचलन रहा है। प्राचीन अरब में यूं तो बाल कटवाना अधार्मिक कृत्य समझा जाता था मगर जब भी इसी परिपाटी आम हुई होगी, बाल काटने के लिए भी हजामा शब्द चल पड़ा। इसका फारसी रूप हुआ हजामत और इसे करनेवाले के लिए शब्द बना हज्जाम। इसके यही रूप हिन्दी-उर्दू में भी प्रचलित हो गए। हिन्दी में तो हजामत बनाना मुहावरा भी चल पड़ा जिसका अर्थ है जेब खाली कराना, खूब पैसा खर्च कराना। जाहिर सी बात है कि हज्म धातु में शामिल आकार देने का भाव बाल काटने में उजागर हो रहा है और रक्त शोधन संबंधी चिकित्सा संबंधी भाव चीरा लगाने जैसे अर्थ से स्पष्ट है। यह पद्धति भारत में आज भी प्रचलित है और नीम हकीमों के द्वारा अपनाई जाती है। इस पद्धति में शंकु के आकार के कप लेकर सुई से खास तौर पर पीठ पर दोने कंधों के बीच में चीरा लगाया जाता है। इस कप में एक छिद्र होता है जिसके जरिये इसमें से हवा खींच कर निर्वात(वैक्यूम) पैदा किया जाता है ताकि ऊपरी रक्तवाहिनियों से खुद-ब-खुद अशुद्ध रक्त बाहर आने लगता है। कटिंग के लिए अंग्रेजी में शेव शब्द भी है। मगर हिन्दी समाज की अदभुत माया है कि शेव शब्द का इस्तेमाल सिर्फ दाढ़ी के बाल काटने के लिए होता है। शब्द प्राचीन इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की धातु ker बड़ी महत्वपूर्ण है। संस्कृत की कृ धातु इसी श्रंखला की कड़ी है। अंग्रेजी में कैंची को कहते हैं सीज़र । हिन्दी की कतरनी और अंग्रेजी की सीज़र आपस में मौसेरी बहने हैं। shave का रिश्ता भी लैटिन के scabere से है जिसमें काटने, खुरचने का भाव समया है। प्राचीन भारोपीय धातु ker का ओल्ड जर्मनिक में रूप हुआ sker जिसका मतलब होता है काटना, बांटना। अंग्रेजी के शेअर यानी अंश , टुकड़े, हिस्से आदि और शीअर यानी काटना इससे ही बने हैं। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Sunday, January 18, 2009 अजित वडनेरकर पर 3:29 AM 18 comments: गधे पंजीरी खा रहे है...[ खानपान-2] किसी ज़माने में पंजीरी खाना शान की बात थी और यह बेहद राजसी पदार्थ रहा होगा। बाद के दौर में जब पाक कला का और विकास हुआ और विभिन्न देशों, खास तौर पर अरबी और फारसी मिठाइयों की हिन्दुस्तान में आमद हुई तो पंजीरी की क़द्र थोड़ी घट गई क ... इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के खलनायक विभक्त और खंडित व्यक्तित्व वाले ही होते हैं... बडनेरकर जी , तमारा गुन कसे गावाँ ? पेलां हूँ सोचतो थो कि 'दीतवार' आखो मालवी आणे देहाती नाँव है 'रविवार' को | बी बी सी आला कैलाश बुधवार हमेसाँ ईके इतवार ई बोलता | कईं-कईं का श्रोता ने एतराज़ करयो कि भई या कईं बात ? आप 'रविवार' के उर्दू में 'इतवार' क्यों बोलो ? कैलाश बुधवार ने बड़ी मिठास में समझायो कि इतवार उर्दू नी है | बल्कि ऊ तो संस्कृत का आदित्य से बन्यो है - आदित्य -> आदित्यवार -> दीतवार -> इतवार | समझ में आयो कि मालवी को 'दीतवार' तो संस्कृत को ई है | आज तमारा लेख ने पाछी खुसी दी कि मालवी को 'जीमणो' संस्कृत की धातु 'जमणम' से चल के बन्यो | मैंने तो ठान ली कि जद भी मौको मिल्यो, ने न्योता छप्या, कि 'प्रीतिभोज' की एवज में 'ज्योनार' ई छपउवाँ | मालवी की इज्ज़त बढाने वास्ते तमारो भोत भोत धन्यवाद ! -आर डी सक्सेना भोपाल हावत है– ग़रीबी में आटा गीला यानी मुश्किल वक्त में और मुसीबत। बचपन में इसे सुनकर दो सवाल मन में आते थे कि आटा अगर गीला न हो तो उससे रोटी बने कैसे? दूसरा ये कि क्या अमीर लोग सूखा आटा खाते हैं? सूखा आटा खाते तो किसी को नहीं देखा गया अलबत्ता आटे से बनी पंजीरी ज़रूर खूब खाई है जो बेहद स्वादिष्ट लगती है। पंजीरी के बारे में भी एक कहावत मशहूर है कि गधे पंजीरी खा रहे हैं... इसका मतलब होता है अक्षम व अयोग्य व्यक्ति का प्रभावशाली होना। हालांकि गधा अयोग्य होता है ये हम नहीं मानते। गधे अगर अयोग्य-अक्षम होते तो दुनियाभर के धोबी भूखों मर जाते! इससे यह तो जाहिर है कि पंजीरी कुछ विशिष्ट किस्म का खाद्य पदार्थ है जिसे खाना श्रेष्ठता का प्रतीक है। हालांकि पंजीरी को लेकर एक मुहावरा है पंजीरी फांकना अर्थात अभाव में रहना। गधों के पंजीरी खाने की बात से साफ है कि किसी ज़माने में पंजीरी खाना शान की बात थी और यह बेहद राजसी पदार्थ रहा होगा। बाद के दौर में जब पाक कला का और विकास हुआ और विभिन्न देशों, खास तौर पर अरबी और फारसी मिठाइयों की हिन्दुस्तान में आमद हुई तो पंजीरी की क़द्र थोड़ी घट गई और इसे ईश्वर के भोग तक सीमित कर दिया गया। पंजीरी की क़द्र घटी है यह इस तथ्य से भी जाहिर होता है कि गरीब विद्यार्थियों को स्कूल तक लाने के लिए केंद्र सरकार की दोपहर भोजन योजना में कई राज्यों में खाना पकाने की ज़हमत से बचने के लिए पंजीरी बांटी जा रही है। सीधी सी बात है सरकारों को यह रोटी-सब्जी से भी सस्ती पड़ रही है, इसके जरिये गधे पंजीरी खा रहे हैं और बच्चे पंजीरी फांक रहे हैं। पंजीरी आमतौर पर आटे से बना पदार्थ माना जाता है मगर इसके नाम पर गौर करें तो इसमें से झांकता पंच भी नज़र आएगा। पंच अर्थात पांच पदार्थ। इसके नाम का दूसरा हिस्सा है जीर्ण, इस तरह पंजीरी बना है पंच+जीर्ण=पंचजीर्णकः से। विकासक्रम कुछ यूं रहा- पंचजीर्णकः.> पंजीर्णक > पंजीरअ > पंजीरी। जीर्ण शब्द संस्कृत धातु जृ से बना है जिसमें सूखना, मुरझाना, घुलना, नष्ट होना, पचाना आदि अर्थ समाहित हैं। जृ से बने जीर्ण में कमजोर, टूटा हुआ, बरबाद, ध्वस्त, कुचला-पिसा हुआ, फटा-पुराना, पचा हुआ जैसे भाव हैं। गौरतलब है कि पंजीरी मूलतः आटे से बनती है। आटा अर्थात चूर्ण। जीर्ण में निहित कुचलने-पीसने का भाव ही पंजीरी में उभर रहा है। कभी पंजीरी पांच पदार्थों से बनाई जाती थी जिसमें गेहूं, चना, गोंद, सोंठ और शर्करा का चूर्ण शामिल हैं। यूं इन पदार्थों को घी में सम्मिलित कर भूनने से पंजीरी जैसे स्वादिष्ट पदार्थ का निर्माण होता था। पाककला-प्रवीण लोगों ने इसमें खोपरा-मेवे जैसे पदार्थों का सम्मिश्रण कर इसे और भी स्वादिष्ट बना दिया। इसका सेवन समृद्ध-सम्पन्न लोग ही करते थे। पंजीरी अन्य कई पदार्थों-अनाजों के आटे से बनती है जैसे बाजरा, ज्वार, खसखस, नारियल, धनिया, राजगीरा वगैरह। खराब दशा के लिए जीर्ण-शीर्ण, जीर्णावस्था शब्द इसी मूल से उपजे है। वृद्धावस्था के लिए जरा शब्द भी जृ धातु से ही बना है जिसका अर्थ निर्बल, टूटा-फूटा, विभक्त, अशक्त, बुढ़ापा आदि होता है। वयोवृद्ध, अशक्त, निर्बल अथवा खंडहर के लिए जराजीर्ण या जरावस्था शब्द भी प्रचलित है। पौराणिक चरित्र जरासंध के नाम का जन्मसूत्र भी इसी जरा में छुपा हुआ है। वह बृहद्रथ नाम के राजा का पुत्र था और जन्म के समय दो टुकड़ों में विभक्त था। जरा नाम की राक्षसी ने उसे जोड़ा था तभी उसका नाम जरासंध पड़ा। जरा राक्षसी ने जोड़ा हो या न जोड़ा हो, मगर पुराणों में कौरवों का साथी होने के नाते जरासंध खलनायक की तरह ही उल्लेखित है। जरा नाम में ही विभक्त का भाव है जिसे बाद में संधि मिली। यानी एक आधे-अधूरे व्यक्तित्व का स्वामी। इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के खलनायक विभक्त और खंडित व्यक्तित्व वाले ही होते हैं, उनका बाहरी रंग-रूप चाहे जैसा हो। जरासंध का अंत भी खंडित व्यक्तित्व का अंत था। भीम नें उसके शरीर को दो हिस्सों में विभक्त कर मृत्यु प्रदान की थी। मालवी चिट्ठी आहार श्रंखला पर सफर की पहली कड़ी पहले पेट पूजा, बाद में काम दूजा [आहार-1] पर भोपाल के श्री आरडी सक्सेना की मालवी बोली में लिखी, प्रेमपगी चिट्ठी मिली। इससे प्रभावित होकर हम जब सक्सेना जी के ब्लाग पर पहुंचे तो पाया एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति का ब्लाग जो मालवी संस्कृति से इतना प्यार करता है कि उसने अपने ब्लाग का नाम ही Spreading fragrance of Malwa रखा है। अपने ब्लाग का परिचय वे यूं देते हैं- मालव मिट्टी की सुगंध से श्रेष्ठतर इस ब्रह्माण्ड में भला कुछ और हों सकता है ? हम इसे पढ़ कर गदगद इसलिए हैं क्यों कि हम भी खुद को मराठी माणूस कम और मालवी मिनख ज्यादा समझते हैं। जन्मे सीहोर में और पले-बढ़े राजगढ़-ब्यावरा में। सक्सेना जी से इतना ही कहना चाहेंगे कि- आरडी भाया, तमारी चिट्ठी पढ़ के म्हारे भी घणो आनंद हुयो। तमसे अबै अतरी सी बात केणी हे के शब्दां का सफर संगे दूर तक लग्या-लग्या चालजो। जै जै। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Share Saturday, January 17, 2009 अजित वडनेरकर पर 3:45 AM 19 comments: पहले पेट पूजा, बाद में काम दूजा.[खानपान-1]. उदरपूर्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इसीलिए भूखे भजन न होई गोपाला, ले ल आपन कंठी माला जैसी उक्ति अक्सर दोहराई जाती है म े बिना मनुष्य रह सकता है मगर नहीं रह सकता। नुश्य की प्राथमिक आवश्यकताओं में हमेशा रोटी, कपड़ा और मकान रहे हैं। इनकी पूर्ति हो जाए तब अन्य इच्छाएं जागृत होती हैं। इनमें भी सर्वाध
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